“दिखा ना, कितनी देर में दिखाएगा, सिर्फ आधा घंटा बचा है” – योगेश की पीठ में पेन चुभोते हुए मैंने कहा।
“बस थोडा और रहा गया है फिर दिखाता हूँ” – योगेश बोला।
हम दोनों 11वीं के छमाही के इम्तिहान दे रहे थे, और उस दिन गणित का पेपर था। उसका नाम योगेश और मेरा योगेन्द्र, नाम की वजह से हम लोग हमेशा एक दुसरे के आगे-पीछे बैठते थे, इसलिए परीक्षा के समय अध्यापक से नजरें चुरा कर एक दूसरे से थोडा बहुत पूछ लिया करते थे।
हम दोनों एक साथ पंकज श्रीवास्तव सर से गणित का ट्यूशन पढ़ते थे। सर जो भी टेस्ट लेते थे उसमें योगेश मुझसे ज्यादा नंबर लेकर आता था पर मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि छमाही की परीक्षा में मुझे एक भी सवाल समझ में नहीं आएगा।
उस दिन पहली बार ऐसा हुआ था कि मुझे एक भी सवाल का उत्तर नहीं आ रहा था, उत्तर की बात छोड़ दीजिये मुझे प्रश्न ही समझ में नहीं आ रहे थे। पहली बार ऐसा होने वाला था जब मैं किसी पेपर में फेल होने वाला था। दूसरी तरफ, मेरे आगे बैठे हुए योगेश की कलम रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं सिर्फ इतना चाहता था कि कैसे भी पास हो जाऊं, और पास होने के लिए अब मेरे पास सिर्फ एक ही उम्मीद बची थी कि योगेश मुझे पास होने लायक नक़ल करा दे।
मैंने आधे घंटे इंतज़ार किया कि योगेश पहले थोडा सा लिख ले और उसके बाद मैं उससे कुछ सवाल दिखाने के लिए कहूं। आधे घंटे के बाद मैंने योगेश को इशारे करना और बुलाना शुरू किया, उसको यह समझाने की कोशिश की कि मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ। पर योगेश अपनी धुन में एक के बाद एक सवाल हल किये जा रहा था।
मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी योगेश ने मुझे उस दिन कुछ भी नहीं दिखाया इसका एक कारण पकडे जाने का डर हो सकता था, पर उस समय मुझे जो कारण समझ में आया वह यह था कि योगेश मुझे जानबूझ कर नहीं दिखा रहा है और यह कारण ध्यान में आते ही योगेश पर मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आया।
योगेश से पेपर ख़त्म होने से आधे घंटे पहले की गयी उस आख़िरी गुहार के बाद मैं अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाया और गुस्से, दुःख और झुन्झुलाहट की उस मिली जुली स्थिति में मैं खाली कॉपी जमा कर बाहर निकल आया।
साइकिल स्टैंड से अपनी साइकिल निकाली और स्कूल के बाहर आ गया। बाहर इन्द्रवीर पहले से खड़ा हुआ था जाहिर है उसने भी खाली कॉपी जमा की होगी।
“और, कैसा गया पेपर?” जैसे ही हमारी नजरें मिलीं उसने पूछा।
“मत पूछ भाई, बहुत बेकार गया है, पहली बार खाली कॉपी छोड़ कर आया हूँ। सबसे ज्यादा गुस्सा तो योगेश पर आ रहा है, थोड़ा भी नहीं दिखाया”, एक ही सांस में मैंने बहुत ही खीझ के साथ उसको बता दिया।
उसके बाद हम दोनों बाहर ही खड़े होकर इधर-उधर की बातें करते रहे। यह इंद्रवीर की आदत है, जब भी मैं परेशान दिखता हूँ तो वह इधर-उधर की बातें करना शुरू कर देता है जिससे मेरा ध्यान भटक जाए। आधा घंटा बीत जाने के बाद योगेश बाहर आया। वो भी अपनी साइकिल निकाल कर आया था। मेरे पास खडा होकर उसने कुछ कहने की कोशिश की पर योगेश को देखते ही मेरा गुस्सा फिर भड़क गया और मैं बिना उसकी बात सुने साइकिल पर चढ़ अपने घर की तरफ चल दिया। योगेश ने पीछे से कई आवाजें दीं पर ना मैंने पलट कर देखा और ना ही कोई बात सुनी। मेरे दिमाग में बस एक ही विचार चल रहा था कि आज योगेश की वजह से मैं फेल हुआ हूँ और आगे कभी इससे बात नहीं करनी है।
घर आकर भी मैं बिना खाना खाए लेट गया। सामान्य तौर पर मैं दूसरे कमरे में लेटा करता था क्यूंकि इस कमरे में पापा जी से मिलने-जुलने आने वाले लोग आते-जाते रहते थे पर उस दिन जानबूझ कर उस कमरे में लेटा था क्यूंकि उस कमरे में फोन रखा था (उस समय हमारे पास मोबाइल नहीं था) और मुझे पता था कि कुछ ही देर में योगेश का फोन आएगा।
मैं लेटे हुए सोच रहा था कि योगेश का फोन आएगा तो क्या कहूँगा। एक मन कह रहा था कि अच्छे से खरी-खोटी सुना दूंगा थोडा सा दिखा नहीं सकता था? क्या चला जाता जो मैं थोडा सा देख कर पास हो जाता, मुझे दिखाने के चक्कर में उसके दो चार नंबर ही तो कम आते। दो चार नंबर कम आने से क्या हो जाता? क्लास में तो सबसे ज्यादा नंबर उसी के आने थे। यही दोस्ती होती है तो क्या फायदा ऐसी दोस्ती का?
दूसरा मन कहता क्या फायदा यह सब कह कर बस फोन उठा कर इतना भर कह देना कि अब तेरी मेरी दोस्ती ख़त्म आगे से हमारी कोई बात नहीं होगी और वो कुछ बोले उसके पहले फोन काट देना।
मन फिर पल्टी लेता और कहता कि ऐसे छोड़ देना ठीक नहीं है, ठीक से सुनाना जरूरी है, दोस्ती तो अब नहीं ही रहने वाली तो अपने मन की बात मन में ही क्यूँ रखी जाए?
मन फिर पलटता कि इतना उलटा सीधा बोल कर बाद में तुझे ही खराब लगेगा तो सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि फोन ही मत उठाओ।
मन अपनी चाल तय कर ही रहा था कि फोन की घंटी बजी, कॉलर आई.डी. नहीं था फिर भी मैं बता सकता था कि फोन योगेश का ही है। घंटी बजती रही पर मन तय कर ही चुका था कि फोन नहीं उठाना है और योगेश से कोई बात नहीं करनी है। फिर अचानक से शरीर में फुर्ती आई लपक कर फोन उठा लिया, योगेश का ही फोन था।
“वहां से क्यूँ चला आया था? मैंने कितनी आवाजें दीं” – योगेश ने कहा।
“कुछ नहीं यार, मेरा दिमाग खराब हो गया था तो बात करने का मन नहीं था। कोई ख़ास बात नहीं है। शाम को कोचिंग में मिलते हैं।” – मैंने कहा, और दोनों तरफ से बाय-बाय हुई और फोन काट दिया।
फोन रख दिया, कुर्सी पर शांती से बैठ गया। मन में चल रही कशमकश शांत हो चुकी थी। मैंने अपनी गलती मान ली थी, पढाई मैंने नहीं की, पंकज सर ने कई बार कहा था कि गणित के सवाल हल करने ही पड़ते हैं तभी समझ में आते हैं पर मैं लापरवाह इंसान था सो उनकी सुनी नहीं। दूसरी तरफ योगेश काफी मेहनत से पढता था, सर जब पढ़ाते थे तो ध्यान देता था। जाहिर है कि आज पेपर देते समय जो हुआ वो तो होना ही था। इसमें योगेश की क्या गलती थी? उसने अपना काम किया, पढाई की, पेपर दिया। काम तो मैंने नहीं किया था, ठीक से पढाई नहीं की और योगेश को भी परेशान किया। फिर गुस्सा उस पर क्यूँ उतारने जा रहा था? गुस्सा तो खुद पर आना चाहिए, मुझे खुद में सुधार की जरूरत थी। किसी और के भरोसे किसी काम को क्यूँ करने गया?
जैसे ही अपनी गलती समझ में आई और मान ली वैसे ही दिल और दिमाग दोनों शांत हो गए। अब मन सोच रहा था कि अच्छा हुआ यह गलती अभी समझ में आ गई कहीं फाइनल में समझ में आती तो? यह विचार मन में आते ही चेहरे पर मुस्कान आ गयी। मम्मी को आवाज दी कि “खाना परोस दो खाकर ट्यूशन जाना है”।
उस दिन समझ में आया “सफलता की सीढी” क्या होती है। सफलता अभी आप से दूर है, आपको और सफलता को मिलाने वाली एक सीढ़ी है। इस समय आप सीढ़ी के एक पाए पर खड़े हैं, आप या तो ऊपर के पाए पर जा सकते हैं जो आपको सफलता के एक कदम करीब ले जाएगा, या फिर आप नीचे वाले पाए पर जा सकते हैं जो आपको सफलता से एक कदम दूर कर देगा। अब यह हमारे ऊपर है कि हम सफलता के पास जाते हैं या उससे दूर हो जाते हैं।
उस दिन यदि मेरा मन जीत गया होता और अपनी गलती ना मान कर योगेश पर अपने फेल होने की जिम्मेदारी डाल दी होती तो मैं सिर्फ एक अच्छा दोस्त ही नहीं खो देता बल्कि सफलता की सीढी पर एक पायदान पीछे पहुँच गया होता। अपनी गलती मानते ही मैं एक पायदान आगे हो गया।
आज भी सफलता की सीढ़ी पर खड़ा हूँ, अब सफल होऊंगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपनी गलती मानता हूँ या दूसरों पर इल्जाम डाल देता हूँ।